ज़िंदगी होश की दुनिया से जुदा लगती है जब किसी दामन-ए-गुल-रू की हवा लगती है शुक्रिया तेरी नवाज़िश का मगर क्या कहिए ये नवाज़िश भी तो इक तर्ज़-ए-जफ़ा लगती है इस चमन-ज़ार-ए-मोहब्ब्बत में हमें ऐ हमदम अपनी हस्ती भी किसी गुल की दुआ लगती है हम को बे-रौनक़ी-ए-शाम-ए-तमन्ना तस्लीम आप की सुब्ह भी माँगे का दिया लगती है क्या क़यामत है कि बे-राह-रवी भी हम को वजह-ए-शाइस्तगी-ए-फ़िक्र-ओ-नवा लगती है मुझ से मिलती है तो कतरा के निकल जाती है हर ख़ुशी चश्म-ए-तग़ाफ़ुल की अदा लगती है हो जो मानूस तबस्सुम की किरन से 'नाज़िम' दिल की हर फ़िक्र उजालों की नवा लगती है