ज़िंदगी ख़ुद ही हलीफ़-ए-रह-ए-ग़म होती है बोझ बढ़ता है तो रफ़्तार भी कम होती है ओस की बूँद से ख़्वाबों को लिखा करते हैं धूप की शक्ल में ता'बीर रक़म होती है इंकिसार आश्ना होता है अना का पैकर पेड़ ख़म हो कि न हो शाख़ तो ख़म होती है इक कसक चुटकियाँ लेती है अज़ल से दिल में इक ख़लिश है कि जो बढ़ती है न कम होती है फूल शबनम की रिफ़ाक़त ही से पाता है जिला आँख नम हो के ही शाइस्ता-ए-ग़म होती है उम्र भर ख़ाक उड़ाती है सरों पर सब के यूँ तो कहने को ज़मीं ज़ेर-ए-क़दम होती है