ज़िंदगी की जो साअ'त जिस के हाथ आई है ख़ूब सोच कर बरते चीज़ तो पराई है मैं ने मर्द-ए-हक़ बन कर जब नज़र उठाई है मेरा सामना करते मौत हिचकिचाई है ख़ल्वत-ए-तमन्ना है ग़म रक़ीब का क्यों हो आप ये तो फ़रमा दें क्यों नज़र चुराई है इक़्तिदार के बंदे जब हुए हैं मतवाले इंक़लाब की तुरशी वक़्त ने चखाई है मुज़्दा-ए-मरीज़-ए-ग़म वक़्त-ए-मुद्दआ' आया रौशनी सितारों की देख झिलमिलाई है आप हों ख़फ़ा मुझ से या मैं आप से नादिम वो भी जग-हँसाई है ये भी जग-हँसाई है है क़रीब अजल 'हसरत' अब तो होश में आएँ ज़िंदगी तो ग़फ़लत से आप ने गँवाई है