ज़िंदगी की शाम है इज़्न-ए-सफ़र होने को है इक मुसाफ़िर वो हूँ जो कि दर-ब-दर होने को है दाग़-दार इस दिल को ले कर हम कहाँ अब जाएँगे फ़ित्ना-गर वो शहर-भर में जल्वा-गर होने को है जो हमारी जान थे होने लगे हैं अजनबी कैसा कैसा ज़ख़्म कारी रूह पर होने को है ऐ शब-ए-ग़म तू बता इन हसरतों से क्या कहें बच रही हैं चंद साँसें और सहर होने को है इक बला के बा'द फिर से इक बला आती रही लाज़मी इक ज़र्ब हम पर कारगर होने को है दास्तान-ए-ग़म सुना कर वो तो उठ कर चल दिए फिर से हम पर ग़म की बारिश ताज़ा-तर होने को है हैं मिरी आँखों में आँसू और लबों पर जान है ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी तू मुख़्तसर होने को है जो कि माँगी थीं दुआएँ खो गईं जाने कहाँ कुछ है घबराहट कि ये सब बे-असर होने को है उन का आना था कि सारे बाम-ओ-दर सजने लगे ख़ुशनुमा इस शहर की हर रहगुज़र होने को है बस नज़र की बात थी जो हम को घायल कर गई क़त्ल-गाह-ए-इश्क़ की हम पर नज़र होने को है कुछ तो ऐसी बात है वो बाम पर आने लगे किस पे माइल आज-कल बेदाद-गर होने को है हम ने 'बरहम' देख ली ये ज़िंदगी वो ज़िंदगी देखते ही देखते ख़ून-ए-जिगर होने को है