ज़िंदानी ज़ंजीर को घूरता रहता है कड़ियों को शहतीर को घूरता रहता है होता कब है ऐसा सुख़न मुक़द्दर में दिल भी हज़रत-ए-'मीर' को घूरता रहता है थक जाता है पहले तो ख़त पढ़ पढ़ के क़ैदी फिर तहरीर को घूरता रहता है आदत से मजबूर था बा'द-अज़-मर्ग भी वो मुनकिर और नकीर को घूरता रहता है एक शनासा शक्ल की ख़ातिर बरसों से रस्ता हर राहगीर को घूरता रहता है लेकिन हम तक़दीर के आगे बेबस हैं नाख़ुन हर तदबीर को घूरता रहता है शाम सवेरे सोते जागते बरसों से सुब्ह-ओ-शाम ज़मीर को घूरता रहता है