ज़ुल्फ़ सुलझाई उन की शाने से मुझ से बिगड़े इसी बहाने से दिल ही क़ाबू से मेरे जाता है बाज़ आया मैं दिल लगाने से लिक्खा तक़दीर का अरे नादाँ कहीं मिटता भी है मिटाने से मिल गए दिल को दाग़-हा-ए-दिरम ख़ुसरव-ए-इश्क़ के ख़ज़ाने से शब को महफ़िल में देख कर मुझ को उठ गया नींद के बहाने से क्या मिलेगा फ़लक तुझे बतला बेकसों के अरे सताने से देख कर रात-दिन की नैरंगी आ गया तंग मैं ज़माने से दर-ब-दर फिरते किस लिए लेकिन सब हैं नाचार आब-ओ-दाने से अपने क़ातिल के रू-ब-रू 'ख़ंजर' मोड़ना मुँह न सर झुकाने से