शाम-ए-ग़म उफ़ ज़िंदगी थी मेरी घबराई हुई मेरी हस्ती पर फ़ज़ा-ए-यास थी छाई हुई बढ़ रही थी एक बेचैनी दिल-ए-नाशाद में बह रहे थे अश्क आँखों से किसी की याद में याद आता था कोई रह रह के मुझ को बार-बार हो रहे थे जिस से रुख़्सत हिज्र में सब्र-ओ-क़रार मेरी हालत कोई उस दम देखने वाला न था चर्ख़ पर बिखरे हुए अफ़्सुर्दा तारों के सिवा याद आता जा रहा था मुझ को कोई ज़र-निगार जिस पे होती है तसद्दुक़ सेहन-ए-गुलशन की बहार लम्हा लम्हा मैं लिए जाता था उस के नाम को जिस से होती थी तसल्ली इस दिल-ए-नाकाम को क्या कहूँ 'शाहिद' किसी से थी ये ऐसी ग़म की शाम दिल में सोज़-ए-ना-मुकम्मल लब पे आह-ए-ना-तमाम