ऐ जवानान-ए-वतन रूह जवाँ है तो उठो आँख उस महशर-ए-नौ की निगराँ है तो उठो ख़ौफ़-ए-बे-हुरमती-ओ-फ़िक्र-ए-ज़ियाँ है तो उठो पास-ए-नामूस-ए-निगारान-ए-जहाँ है तो उठो उठो नक़्कारा-ए-अफ़्लाक बजा दो उठ कर एक सोए हुए आलम को जगा दो उठ कर एक इक सम्त से शब-ख़ून की तय्यारी है लुत्फ़ का वअ'दा है और मश्क़-ए-जफ़ा-कारी है महफ़िल-ए-ज़ीस्त पे फ़रमान-ए-क़ज़ा जारी है शहर तो शहर है गाँव पे भी बम्बारी है ये फ़ज़ा में जो गरजते हुए तय्यारे हैं बरसर-ए-दोश-ए-हवा मौत के हरकारे हैं इस तरफ़ हाथों में शमशीरें ही शमशीरें हैं उस तरफ़ ज़ेहन में तदबीरें ही तदबीरें हैं ज़ुल्म पर ज़ुल्म हैं ताज़ीरों पे ताज़ीरें हैं सर पे तलवार है और पाँव में ज़ंजीरें हैं एक हो एक कि हंगामा-ए-मशहर है यही अर्सा-ए-ज़ीस्त का हंगामा-ए-अकबर है यही अपनी सरहद पे जो अग़्यार चले आते हैं शोला-अफ़्शाँ ओ शरर-बार चले आते हैं ख़ून पीते हुए सरशार चले आते हैं तुम जो उठ जाओ तो बे-कार चले आते हैं ख़ूँ जो बह निकला है उस ख़ूँ में बहा दो उन को उन की खोदी हुई ख़ंदक़ में गिरा दो उन को रंग-ए-गुल-हा-ए-गुलिस्तान-ए-वतन तुम से है सोरिश-ए-नारा-ए-रिंदान-ए-वतन तुम से है नश्शा-ए-नर्गिस-ए-ख़ूबान-ए-वतन तुम से है इफ़्फ़त-ए-माह-ए-जबीनान-ए-वतन तुम से है तुम हो ग़ैरत के अमीं तुम हो शराफ़त के अमीं और ये ख़तरे में हैं एहसास तुम्हें है कि नहीं ये दरिंदे ये शराफ़त के पुराने दुश्मन तुम कि हो हामिल-ए-आदाब-ओ-रिवायात-ए-कुहन जादा-पैमा के लिए ख़िज़्र हो तुम ये रहज़न तुम हो ख़िर्मन के निगहबान ये बर्क़-ए-ख़िर्मन ख़ित्ता-ए-पाक में ज़िन्हार न आने पाएँ आ ही जाएँ जो ये ज़िंदा तो न जाने पाएँ मर्द-ओ-ज़न पीर-ओ-जवाँ इन के मज़ालिम के शिकार ख़ून-ए-मासूम में डूबी हुई इन की तलवार ये क़यामत के हवसनाक ग़ज़ब के ख़ूँ-ख़ार इन के इस्याँ की न हद है न जराएम का शुमार ये तरह्हुम से न देखेंगे किसी की जानिब इन की तोपों के दहन कर दो उन्ही की जानिब ये तो हैं फ़ित्ना-ए-बेदार दबा दो इन को ये मिटा देंगे तमद्दुन को मिटा दो इन को फूँक दो इन को झुलस दो कि जिला दो इन को शान-ए-शायान-ए-वतन हो ये बता दो इन को याद है तुम को किन अस्लाफ़ की तुम यादें हो तुम तो ख़ालिद के पिसर भीम की औलादें हो तुम तो तन्हा भी नहीं हो कई दम-साज़ भी हैं रूस के मर्द भी हैं चीन के जाँ-बाज़ भी हैं कुछ न कुछ साथ फ़रंगी के फ़ुसूँ-साज़ भी हैं और हम जैसे बहुत ज़मज़मा-पर्दाज़ भी हैं दूर इंसान के सर से ये मुसीबत कर दो आग दोज़ख़ की बुझा दो इसे जन्नत कर दो