जब छलकते हैं ज़र-ओ-सीम के गाते हुए जाम एक ज़हराब सा माहौल में घुल जाता है काँप उठता है तही-दस्त जवानों का ग़ुरूर हुस्न जब रेशम-ओ-कम-ख़्वाब में तल जाता है मैं ने देखा है कि अफ़्लास के सहराओं में क़ाफ़िले अज़्मत-ए-एहसास के रुक जाते हैं बेकसी गर्म निगाहों को झुलस देती है दिल किसी शोला-ए-ज़रताब से फुक जाते हैं जिन उसूलों से इबारत है मोहब्बत की असास उन उसूलों को यहाँ तोड़ दिया जाता है अपनी सहमी हुई मंज़िल के तहफ़्फ़ुज़ के लिए रहगुज़ारों में धुआँ छोड़ दिया जाता है मैं ने जो राज़ ज़माने से छुपाना चाहा! तू ने आफ़ाक़ पे उस राज़ का दर खोल दिया मेरी बाँहों ने जो देखे थे सुनहरे सपने तू ने सोने की तराज़ू में उन्हें तोल दिया आज अफ़्लास ने खाई है ज़रसीम से मात इस में लेकिन तिरे चिल्लों का कोई दोश नहीं ये तग़य्युर उसी माहौल का पर्वर्दा है अपनी बे-रंग तबाही का जिसे होश नहीं रहगुज़ारों के धुँदलके तो ज़रा छट जाएँ अपने तलवों से ये काँटे भी निकल जाएँगे आज और कल की मसाफ़त को ज़रा तय कर लें वक़्त के साथ इरादे भी बदल जाएँगे