आज की रात कुछ यूँ गुज़री जैसे आकाश से टूट कर तारे ख़ला में सुहानी वादियों में जब आ जाता है ख़ौफ़नाक ज़लज़ला और फैलता है सिकुड़ता है नदी का किनारा कुछ वैसे ही आज की रात गुज़री है आज की रात चुभा है कोई काँटा फूलों के भरम में और सिमटती आई है कोहरे की स्याह चादर निगलने को उजाले का वजूद पँख फड़फड़ाया है कोई बे-सम्त परिंदा भूल कर बसेरे का निशाँ जैसे कुछ वैसे ही आज की रात गुज़री है