इस घर में या उस घर में तू कहीं नहीं है दरवाज़े बजते हैं ख़ाली कमरे तेरी बातों की महकार से भर जाते हैं दीवारों में तेरी साँसें सोई हैं मैं जाग रहा हूँ कानों में कोई गूँज सी चकराती फिरती है भूले-बिसरे गीतों की चाँदनी रात में खिलते हुए फूलों की दमक है, यहीं कहीं तेरे ख़्वाब मिरी बे-साया ज़िंदगी पर बादल की सूरत झुके हुए हैं याद के दश्त में आँखें काँटे चुनती हैं मेरे हाथ तिरे हाथों की ठंडक में डूबे रहते हैं आख़िर... तेरी मिट्टी से मिल जाने तक कितने पल कितनी सदियाँ हैं इस सरहद से उस सरहद तक कितनी मसाफ़त और पड़ी है उन रस्तों में कितनी बारिशें बरस गई हैं आँखें मिरी तेरी रातों को तरस गई हैं