तू आफ़ाक़ से क़तरा क़तरा गिरती है सन्नाटे के ज़ीने से इस धरती के सीने में तू तारीख़ के ऐवानों में दर आती है और बहा ले जाती है जज़्बों और ईमानों को मैले दस्तर-ख़्वानों को तू जब बंजर धरती के माथे को बोसा देती है कितनी सोई आँखें करवट लेती हैं तू आती है और तिरी आमद के नम से प्यासे बर्तन भर जाते हैं तेरे हाथ बढ़े आते हैं गदली नींदें ले जाते हैं तेरी लम्बी पोरों से दिलों में गिर्हें खुल जाती हैं काली रातें धुल जाती हैं तू आती है पागल आवाज़ों का कीचड़ सड़कों पर उड़ने लगता है तू आती है और उड़ा ले जाती है ख़ामोशी के ख़ेमों को और होंटों की शाख़ों पर मोती डोलने लगते हैं पंछी बोलने लगते हैं तू जब बंद किवाड़ों में और दिलों पर दस्तक देती है सारी बातें कह जाने को जी करता है तेरे साथ ही बह जाने को जी करता है