ये सोते-जागते लम्हात मुझे अब हालत-ए-एहसास में रहने नहीं देते हर इक पल बोझ लगता है ये जिस्म अपना मुझ तन्हाइयों के हर सफ़र से ख़ौफ़ आता है मुझे ये चाँदनी भी अब बहुत अच्छी नहीं लगती किसी चेहरे पे वो सुर्ख़ी शफ़क़ जैसी नहीं मिलती मुझे मा'सूम बच्चों का हुमकना और उछलना कूदना किलकारियाँ लेना भी सब बे-कैफ़ लगता है कि अब इक दूसरे के ग़म में भी आँसू बहाना भूल बैठे हैं कि अब तो सिर्फ़ बारूदी धमाकों एटमी ख़तरों की बातों में बहुत सामान-ए-सरशारी है क्यूँ आख़िर ये किस मंज़िल की जानिब गामज़न हैं सब