ख़ुद दूदमान-ए-क़िब्ला-ए-आलम करें ख़याल दिल में बहुत दिनों से है काँटा चुभा हुआ उस ख़ानदाँ के एक रंगीले पिया के घर फ़रज़ंद-ए-अर्जुमंद के ख़त्ना पे क्या हुआ चश्मे उबल रहे थे सुरूर-ओ-नशात के था चावड़ी का नक़्शा-ए-उर्यां खिंचा हुआ इस महफ़िल-ए-नशात के नर्ग़े में वो भी थे चेहरे पे जिन के ज़ोहद-ओ-वरा था लिखा हुआ क़व्वाल गा रहे थे ख़ुज़ू'-ओ-ख़ुशू' से रिंदान-ए-बुल-हवस में था ग़ौग़ा मचा हुआ बादा-गुसार खोल के बैठे थे बोतलें था रंडियों के सामने हुक़्क़ा धरा हुआ ना'त-ए-नबी पे इस्मत-ए-आवारा नुक्ता-चीं ख़ौफ़-ए-ख़ुदा था ज़ोहरा-वशों में घिरा हुआ दौलत के ढेर 'ज़ाहिदा' परवीन पे निसार दहक़ान-ए-ख़स्ता-हाल का चूल्हा बुझा हुआ थे ख़ादिमों के पेट पे पत्थर बंधे हुए और कंचनों पे बाब-ए-सख़ावत खुला हुआ 'शोरिश' उस एक मंज़र-ए-ज़ोहरा-गुदाज़ में दस्त-ए-दुआ' था अर्श की जानिब उठा हुआ इस हश्र-ए-नौ में क़िब्ला-ए-आलम कहाँ थे आप देखा तो होगा आप ने जो माजरा हुआ