ये मेरा वहम है शायद मगर अक्सर मिरे हर हर नफ़स से बे-सबब पैहम उलझते सिलसिलों की रौशनी में मुझे महसूस सा होने लगा है कि हर लम्हे की संगीं ओट में सिमटा हुआ हालात का इफ़रीत शिकस्त-ओ-रेख़्त के दरपे बराबर ताक में बैठा हुआ है यही हालात का इफ़रीत इन्ही लम्हों की पर्बत से उतर कर वसूक़-ए-जब्र से छा जाएगा यलग़ार बन कर तरद्दुद से तदब्बुर से तराशी इन फ़ज़ाओं पर जिन्हें ख़ुश-फ़हमियाँ मेरी अभी तक शौक़ से देती रही हैं सुहाना नाम अपनी काएनात-ए-ज़ेहन-ओ-दिल का ये मेरी काएनात-ए-ज़ेहन-ओ-दिल भी अगर इस उम्र के महदूद अर्से तक मिरा हिस्सा नहीं है मिरे आ'माल पर मब्नी न कोई हाल है मेरा न कुछ उम्मीद फ़र्दा की मिरे आ'माल पर मब्नी मिरी उक़्बा भी क्या होगी मिरी उक़्बा भी क्या होगी