ठेस लग जाए तो नदी की तरह ठेस लग जाए तो नदी की तरह पहरों बहते हैं अपनी आँखों में कोई छेड़े तो कुछ नहीं कहते सूरत-ए-गुल हवा से क्या शिकवा शाम की आँच से उलझना क्या हाँ मगर साँस में कोई लर्ज़िश मुद्दतों साथ साथ रहती है किस को बतलाएँ किस क़दर नौहे रंज में किस क़दर बसे नग़्मे गीत मिलने के और बिछड़ने के कितने किरदार इक कहानी के अपने एहसास में सिसकते हैं जिन को ये लोग सोचते भी नहीं ऐसे रिश्तों को हम पिरोते हैं अब्र की तरह साए की चादर सब की रूहों पे डाल देते हैं और सारी थकन अज़ाबों की एक बारिश में ढाल लेते हैं ख़ुद सुलगते हैं कुछ नहीं कहते ख़ुद सिसकते हैं कुछ नहीं कहते सूरत-ए-गुल हवा से क्या शिकवा शाम की आँच से उलझना क्या आँसुओं से बने हुए हम लोग