शाम जब ढलती है मैं अपने ख़राबे की तरफ़ लोटता हूँ सर-निगूँ, बोझल क़दम बारा घंटों की मशक़्क़त और थकन बढ़ के ले लेती है मुझ को गोद में और सैल-ए-तीरगी में डूब जाती है उम्मीद ओ शौक़ की इक इक किरन रहगुज़ार-ए-आरज़ू पर चार-सू उड़ती है धूल और इक आवाज़ आती है कहीं से जो कि अन-जानी भी पहचानी भी है ज़िंदगी कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं इक मुसलसल मर्ग, इक सैल-ए-बला, नेज़ों के बन आहों, कराहों के सिवा फिर इसी तारीक लम्हे, फिर इसी नाज़ुक घड़ी आरज़ू की रहगुज़र पर चंद नक़्श-ए-पा उभरते हैं सितारों की तरह लहलहाता है कोई आँचल बहारों की तरह फैल जाती है किसी गेसू की निकहत चार-सू एक फ़िरदौसी तबस्सुम की सुनहरी चाँदनी धीमे धीमे, ज़ीना ज़ीना गुनगुनाती, रक़्स फ़रमाती हुई बाम-ए-ग़म से ख़ाना-ए-दिल में उतर कर थपथपाती है मुझे गीत गाती है, कभी लोरी सुनाती है मुझे और फिर जब सुब्ह को ख़ुर्शीद-ए-आलम-ताब की पहली किरन गुदगुदाती है मुझे कार-गाह-ए-दहर में वापस बुलाती है मुझे आरज़ू ओ जुस्तुजू दिल में जवाँ पाता हूँ मैं शौक़ की मय के नशे में चूर हो जाता हूँ मैं!!