ख़िज़ाँ-रसीदा हैं गर बहारें इन्ही ख़िज़ाओं का जश्न होगा ज़माने वो भी तो याद होंगे जो रोज़ जश्न-ए-बहार होता न जाओ पत्तों पे टहनियों पर जो सूख कर चरमरा गई हैं अभी भी इन में है आग पिन्हाँ अभी हैं शो'ले भी ख़्वाब-आगीं ख़रोश चिंगारियों का ख़ुफ़्ता न छेड़ो इन को अभी न छेड़ो