सर से पा तक जिस्म को ढाँपें आया मौसम जाड़े का लेकिन फिर भी थर थर काँपें आया मौसम जाड़े का पहले धूप निकलती थी तो हम उस से घबराते थे होती थी दोपहर तो भय्या कमरों में घुस जाते थे सूरज ढलता लू कम होती तब हम बाहर आते थे गर्मी से बचने की ख़ातिर पंखे ख़ूब चलाते थे गर्मी का अब ज़िक्र नहीं है आया मौसम जाड़े का पंखे की अब फ़िक्र नहीं है आया मौसम जाड़े का गर्मी से छुटकारा पाया तो बारिश ने घेर लिया काले काले बादल छाए दिन भी आधी रात लगा रिम-झिम रिम-झिम रिम-झिम रिम-झिम पानी फिर दिन रात पड़ा घर से बाहर काम को जाना लोगों को दुश्वार हुआ काली काली रात गई तब आया मौसम जाड़े का रुख़्सत जब बरसात हुई तब आया मौसम जाड़े का अब कोई जैकेट पहने है कोई अचकन पहने है कोई स्वेटर कोट एलिस्टर मफ़लर ख़ूब लपेटे है सर पर ऊनी शाल किसी के कोई कम्बल ओढ़े है ग़र्ज़ कि जिस को जो है मयस्सर उस से जिस्म छुपाए है कितना ही सर से पा तक ढाँपें आया मौसम जाड़े का लेकिन फिर भी थर-थर काँपें आया मौसम जाड़े का