बहार आई है गुलशन शादमाँ है बहुत रंगीं चमन की दास्ताँ है हुजूम-ए-नाज़नीन-ओ-मह-विशॉं है तिरंगे को ज़रा ऊँचा उठाओ रफ़ीक़ो जश्न-ए-आज़ादी मनाओ तुम्हीं से क़ौम की है जाह-ओ-हशमत तुम्हीं से है वतन की शान-ओ-अज़्मत तुम्हें देना है अब दर्स-ए-मोहब्बत क़दम इक साथ सब मिल कर बढ़ाओ रफ़ीक़ो जश्न-ए-आज़ादी मनाओ मिटा दो बुग़्ज़-ओ-कीना फ़ित्ना-ओ-शर वो ग़ुंचा हो कि काँटा या गुल-ए-तर बराबर सब का हक़ है गुल्सिताँ पर यही सब से कहो सब को बताओ रफ़ीक़ो जश्न-ए-आज़ादी मनाओ सँवारो इस तरह से सेहन-ए-गुलशन रहें मिल-जुल के सब शैख़-ओ-बरहमन हो गोशा गोशा इस धरती का रौशन अहिंसा का सबक़ सीखो सिखाओ रफ़ीक़ो जश्न-ए-आज़ादी मनाओ मिटा दो हिन्द से बे-रोज़गारी नया फ़न हो नई हो दस्त-कारी तिजारत में बढ़े शोहरत तुम्हारी वतन को अपने इक जन्नत बनाओ रफ़ीक़ो जश्न-ए-आज़ादी मनाओ मुहाफ़िज़ हो निगहबान-ए-चमन हो तुम्हीं तो जान-ओ-रूह-ए-अंजुमन हो सिखाना क्या तुम्हें तुम अहल-ए-फ़न हो चराग़-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न से नूर लाओ रफ़ीक़ो जश्न-ए-आज़ादी मनाओ