काँच के ख़्वाब जैसी वादियाँ थरथराई हुई दफ़अ'तन मौत की वादियों में बदलती गईं कुछ नहीं बच सका ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं ख़ून ही ख़ून है संग-ओ-आहन ख़स-ओ-ख़ाक के ढेर में ज़िंदगी नीम मदफ़ून है कोई चारा नहीं राह मसदूद है हाँ मगर बेबसी के अँधेरों से लड़ती हुई एक नन्ही किरन आँसूओं की लड़ी में चमकती हुई झिलमिलाती हुई अब भी मौजूद है दिल खंडर हो गया फिर भी उम्मीद की लौ नहीं बुझ सकी ख़ून-आशाम पंजों में जकड़े हुए जिस्म पर धीरे धीरे लहू चूसती मौत ग़ालिब नहीं आ सकी साँस लेने पे इसरार करती हुई सूखते पेड़ की एक टहनी अभी सब्ज़ है