अभी वो एक दिन का भी नहीं भट्टी से मिट्टी की नस्ल आग का नाम पूछती और गीली छाँव तले सो न न जाती तो क़ैदी क़ैदी न जनते कलियाँ खुलतीं या मौसम रहा होते या कुछ और होता मगर यूँ हुआ कि इस के मेरे दरमियाँ इक पल टूट गया उस के मेरे दरमियाँ एक तितली भड़कती फिरती है उस के मेरे दरमियाँ इक राह मुसाफ़िर है उस के मेरे दरमियाँ बहुत से लफ़्ज़ टूटे हुए प्यालों के कुंडों की तरह एक दूसरे में अटके हुए हैं सो मैं ने आज का दिन भी ज़ाएअ' होने के लिए दीवार पर डाल दिया चुँधयाई हुई चिड़िया दर पर कव्वा किस के मज़ार की मिट्टी लिए मेरे आँगन में धूप धोने आ निकली है उड़ने में कुछ देर लगेगी पर गीले हैं छतें ऊँची हैं दरमियाँ में धुआँ धूप समेट और बिखेर रहा है आओ मुझे रिहा करो मेरे परों से गीली मिट्टी चिमटी हुई है मुझे उड़ने का इज़्न दो कि मैं ने सो रहने का गुनाह किया सूरज कमाने अब छाँव न होने देना मैं ने मरा हुआ झूट जना मुझे और सोने न देना कि अभी मुझे सच बोलना है