जहान-ए-रेग के ख़्वाब-ए-गिराँ से आज तो जाग हज़ारों क़ाफ़िले आते रहे गुज़रते रहे कोई जगा न सका तुझ को तुझ से कौन कहे वो ज़ीस्त मौत है जिस में कोई लगन हो न लाग तड़प उठे तिरे होंटों पे काश अब कोई राग जो तेरे दीदा-ए-संगीं से दर्द बन के बहे ये तेरी तीरा-शबी बिजलियों के नाज़ सहे यूँही सुलगती रहे तेरे दिल में ज़ीस्त की आग मगर नहीं, तू अगर मेरा राज़-दाँ होता तिरे लबों पे दहक उठती कोई प्यार की बात तो आज दहर के सीने पे तू कहाँ होता तिरे सुकूँ को कभी छू सका न वक़्त का हात ख़ुद अपनी आग ही में जल-बुझी है मेरी हयात वगरना तेरी तरह मैं भी जावेदाँ होता