कराची किसी देव-क़द केकड़े की तरह समुंदर के साहिल पे पाँव पसारे पड़ा है नसें उस की फ़ौलाद-ओ-आहन बदन रेत सीमेंट पत्थर बसें टैक्सीयाँ कारें रिक्शा रगों में लहू की बजाए रवाँ जिस्म पर जा-ब-जा दाग़ दलदल-नुमा जहाँ अंकबूत अपने तारों से बुनते हैं बैंकों के जाल कि उन में शुमाल और मशरिक़ से आए हुए इश्तिहा और ख़्वाबों के मारे मगस फड़फड़ाते रहें मुस्तक़िल आलम-ए-जाँ-कनी में रहें शाम होते ही इस की नम-आलूद और खुरदुरी खाल से इस के बे-ढंग आज़ा से इश्वा-फ़रोशों के पैराहनों की तरह रौशनी फूटती है ये वो शहर-ए-ख़ुद-मुतमइन है जो अपने ही दिल की शक़ावत पे शैदा रहा मैं चाहत के फूलों भरे जंगलों से जब आया तो इस शहर की पीठ मज्लिस की दीवार की तरह मेरी तरफ़ थी मैं शिद्दत की तंहाई में आश्ना हर्फ़ का आरज़ू-मंद पैहम तग़ाफ़ुल से रंजीदा बे-दिल यहाँ के रुसूम और आदाब से बे-ख़बर नाख़ुनों से ज़मीन खोद कर आँसुओं की नमी से उसे सींच कर हर्फ़ कलियों की उम्मीद में दर्द बोलता रहा कई बार मैं ने समुंदर की भीगी हवाओं से पूछा कि ऐ ख़ुश-नफ़स रहरवो तुम इस तरह बेगाना-वश क्यूँ गुज़रती हो पल भर रुको कोई तस्कीं का पैग़ाम दो और अपना ये अमृत सा हाथ दुखे दिल पे रख दो प वो शहर की साँस में इंजनों के धुएँ की कसाफ़त से अफ़्सुर्दा आँखें चुराए गुज़रती रहीं कई बार यूँ भी हुआ है कि मैं और ये शहर इक मुश्तरक दुख की ज़ंजीर में बंध गए और मुझे ये गुमाँ सा हुआ कि अब अज्नबिय्यत की दीवार गिरने को है अभी उस की नमनाक आँखें कहेंगी कि हम एक हैं लम्हा-ए-दर्द का साथ सब से बड़ा साथ है मगर मैं ने देखा कि इस वक़्त भी उस की पथराई आँखों में अक्स-ए-शनासाई नापैद था और अब जब मैं इस शहर से जा रहा हूँ तो इस की दरांती सी बाँहों के दंदाने मेरे रग-ओ-पै में उतरे हुए हैं