तुम जो कहते हो मुझ से अक्सर के नाम तेरे पे नज़्म कह दूँ सुनो फिर तुम मैं चाहती हूँ सर्द रुतों की उदास शामें मैं संग तेरे यूँ बिताऊँ कलाइयाँ सूनी पड़ी हैं कब से मैं नाम तेरे कंगन पहनूँ गुलाब गजरों से ख़ूब महकूँ ख़्वाब आँखों से ख़ुद जो देखूँ तुम्हें दिखाऊँ गहरी नींदों से फज्र के लिए ख़ुद जागूँ तुम्हें जगाऊँ हदीस-ए-किसा रोज़-ए-जुमा' सुनूँ तुम से तुम्हें सुनाऊँ तुम्हारी गोदी में सर रखे ढली दोपहर सो जाऊँ मेरे जीवन की बहार तुम हो मेरा ये जोबन सिंगार तुम हो मेरे बख़्त का राज तुम हो मेरे सर का ताज तुम हो तुम्हें ख़बर है मेरे मिज़ाज में रूमान कम है मोहब्बत का इज़हार कम है तुम्ही हो जान-ए-जाँ जानाँ मैं कैसे तुम को ये जताऊँ मेरी आँखों की रूदाद पढ़ लो या धड़कनों की ज़बाँ सुनाऊँ मेरे होने की तमसील तुम हो मैं अधूरी हूँ तकमील तुम हो