कभी मैं सोचता हूँ ख़ोल से अपने निकल कर इक परिंदे की तरह बादल को छू लूँ या कभी झरने में बच्चों की तरह किलकारियाँ भर कर उछालूँ आप अपने जिस्म पर पानी कभी जा कर समुंदर के किनारे रेत पर लेटूँ घरौंदे रेत के ता'मीर कर के एक ठोकर से गिरा दूँ या किसी मसरूफ़ सी शह-राह पर जाऊँ वहाँ चीख़ूँ हँसूँ गाऊँ कभी फ़ुटपाथ पर रुक कर दही के गोल-गप्पे खा के चटख़ारे भरूँ या फिर अदब और शे'र की कोई सिक़ा महफ़िल में जाऊँ और वहाँ खिल्ली उड़ाऊँ जब मुझे सब चौंक कर हैरत से घूरें तो ख़ुशी से झूम जाऊँ अपने होंटों से हँसी का एक फ़व्वारा उड़ा कर भाग निकलूँ हाँ मगर इन में से कोई बात भी मुमकिन नहीं है क्यों कि मैं तो अपने ख़ोल में महसूर रहता हूँ हमेशा क़ैद रहता हूँ