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अँधेरी शाम के साथी अधूरी नज़्म से ज़ोर-आज़मा हैं बर-सर-ए-काग़ज़ बिछड़ने की सुनो... तुम से दिल-ए-महज़ूँ की बातें कहने वालों का यही अंजाम होता है कहीं सत्र-ए-शिकस्ता की तरह हैं चार शाने चित कहीं हर्फ़-ए-तमन्ना की तरह दिल में तराज़ू हैं सुनो... इन नील-चश्मों सख़्त-जानों बे-ज़बानों पर जो गुज़रेगी सो गुज़रेगी मगर मैं इक अधूरी नज़्म की हैजान में खोया तुम्हें आवाज़ देता हूँ कि तन्हा आदमी तख़्लीक़ से आरी हुआ करता है जान-ए-मन! सुनो... मेरे क़रीब आओ कि मुझ को आज की रात इक अधूरी नज़्म पूरी कर के सोना है!
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