उम्र का सूरज सिवा नेज़े पे आया गर्म शिरयानों में बहते ख़ून का दरिया भँवर होने लगा हल्क़ा-ए-मौज-ए-हवा काफ़ी नहीं वहशत-ए-अब्र-ए-बदन के वास्ते आग़ोश कोई और हो वर्ना यूँ मुर्दा सड़क के ख़्वाब-आवर से किनारे बे-ख़याली में किसी थूके हुए बच्चे की उलझी साँस में लिपटी हुई ये ज़िंदगी! ज़ेहन पर बार-ए-गिराँ बंद क़बा के लम्स का एहसास भी और शहर-ए-हब्स में रस्ता कोई खुलता नहीं शाख़ तन्हा से बीये का घोंसला गिरता नहीं वहशत-ए-अब्र-ए-बदन की ख़ुश्क-साली एक चुल्लू लम्स के पानी की मुहताजी को रोती है मगर! देखना आवारा किरनें देखना जिन को रस्तों में बिखरती तितलियों सी लड़कियों के ज़ेर जामों और शीरीं जिस्म के हल्के मसामों तक सफ़र का इज़्न है उम्र का सूरज सिवा नेज़े पे आया अब किताबों, तख़्तियों की बे-मज़ा छाँव तले घुटता है दम अब बदन छुपता नहीं अख़बार के मल्बूस में अब फ़क़त उर्यानियाँ लेकिन यक़ीनन मार डालेगी कहीं इन भरे शहरों की तन्हाई हमें
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