ये उरूज-ए-दौलत-ए-क़ैसरी ये शिकोह-ए-ताज-ए-सिकंदरी कि यहाँ तो ख़ून-ए-ग़रीब से है तपिश में नब्ज़-ए-तवंगरी वही ख़्वाजगी वही ख़ुसरवी वही रंग-ओ-नस्ल की बरतरी यही है तमद्दुन-ए-मग़रिबी कोई मुझ से सुन ले खरी खरी जो है तर्ज़-ए-बादा-कशाँ यही जो है मय-कदे का समाँ यही ख़ुम-ओ-शीशा में मय-ए-लाला-गूँ यूँही सड़ रहेगी धरी धरी ये ज़माना कैसा बदल गया न वो वलवले न वो हौसले किसी वक़्त थे जो सनम-शिकन वो हैं आज वक़्फ़-ए-सनम-गिरी मिरे दिल पे बर्क़ सी गिर पड़ी ये कहा जो मुर्ग़-ए-असीर ने मिरे आशियाने की शाख़ भी कभी थी चमन में हरी-भरी वही आह अस्ल में आह है वही नाला अस्ल में नाला है कि इधर जो दिल से निकल पड़े तो उधर फ़लक में हो थरथरी ये सितम-ज़रीफ़ी-ए-अहद-ए-नौ भी है 'नजमी' कितनी अजीब सी कि जो गुमरही में है मुब्तला है उसी को दा'वा-ए-रहबरी