ये कौन कहता है इंसाँ का कारवान-ए-हयात पलट के आने को है बे-गुनाही की जानिब वही गुनाह वही मासियत वही बदबू वही है दर्द वही करवटें वही पहलू वही फ़साद वही शर ही तमर्रुद है दिमाग़-ओ-दिल पे मुसल्लत वही तशद्दुद है ये कौन कहता है इंसाँ का कारवान-ए-हयात पलट के आने को है बे-गुनाही की जानिब मैं देखता हूँ कि इंसाँ का कारवान-ए-हयात उजाला छोड़ चला है सियाही की जानिब सियाही जैसे समुंदर की थाह में पिन्हाँ सियाही जैसे ख़म-ए-दूद-ए-आह में पिन्हाँ सियाही जैसे घटा-टोप रात से ज़ाहिर सियाही जैसे मुनाफ़िक़ की बात से ज़ाहिर मैं देखता हूँ कि इंसाँ का कारवान-ए-हयात उजाला छोड़ चला है सियाही की जानिब मैं जानता हूँ कि इंसाँ का कारवान-ए-हयात रवाँ-दवाँ तो है लेकिन तबाही की जानिब तबाही जिस में जहन्नम का ग़ार पोशीदा तबाही जिस में है हर फ़र्द ज़हर-नोशीदा तबाही जिस में है हर घात घात में जुमूत तबाही जिस में निहाँ मौत का जुमूद-ओ-सुकूत मैं जानता हूँ कि इंसाँ का कारवान-ए-हयात रवाँ-दवाँ तो है लेकिन तबाही की जानिब