यूँ लगता है जैसे सुब्ह का मंज़र उफ़क़ के मैले-पन को धो रहा हो शाम के वक़्त आसमाँ ने तेवर बदले हों कोई बै-रागी साहिल पे खड़ा किसी सूफ़ी शाइ'र का कलाम गुनगुनाता रहा हो यूँ लगता है जैसे बॉलकनी में बैठा लहलहाते खेतों का नज़ारा करते कोई शाइ'र महव-ए-तख़्लीक़-ए-सुख़न जिस के ज़ेहन से ख़ूब-सूरती बिखेरता हुआ आबशार मुसहफ़-ए-ज़मीं को चूम रहा हो यूँ लगता है जैसे मस्त अदाओं से बल खाती हुई कोई नदी सागर से मिलने को बे-ताब हो यूँ लगता है जैसे कोई फ़रिश्ता माइल-ए-तबस्सुम अक्सर यही ख़याल आता है तुझे देखने के बा'द