रफ़्ता रफ़्ता मुआ'फ़ करने का चलन मद्धम पड़ता जा रहा है क्या तुम्हें यक़ीं नहीं कि बदलते हुए लम्हों की चक्की में अख़लाक़ियात रिवायात और क़द्रें पिस रही हैं आज हमारा मुआ'शरा बे-ग़ैरती के उस संगम पर खड़ा है जहाँ औरत की पाकीज़ा कोख किराए पर लेने के लिए सौदे-बाज़ी हो रही है हमारी बे-हिसी ने हमारे लबों पर ख़ामोशी की मोहर सब्त कर रखी है तो ऐ अहल-ए-दिल कल क्या होगा जब मुआ'फ़ी माँगने का चलन ख़त्म हो जाएगा