खुली हवा और घुटन के वक़्फ़े तवील तर थे तो फिर भी इतने गराँ नहीं थे मगर गुज़िश्ता कई दिनों से ये वक़्फ़े गोया सिमट चुके हैं अभी मैं जी भर के ले न पाती हूँ चंद साँसें हसीं फ़ज़ा में कि फिर उसी वक़्फ़ा-ए-घुटन की सक़ील दस्तक समाअ'तों को फ़िगार करती पयाम लाती है मौसम-ए-हब्स और घुटन के मैं इस तसलसुल से थक चुकी हूँ ऐ लम-यज़ल ऐ ख़ुदा-ए-बर्तर ये दरमियाँ की अज़िय्यतों को मिटा के कर दे मिरे मुक़द्दर में मौसम-ए-गुल हमेश्गी का वगर्ना फिर दाइमी हब्स बख़्त कर दे