मुझे वदीअत हुई है जब तक तुम्हारी आँखें मक़ाम-ए-बीनाई तक न पहुँचीं सफ़ेद काग़ज़ की रौशनी को सियाह अल्फ़ाज़ से मुसलसल छुपाए रख्खूँ कहा गया है ये क़ौल भी दूँ जब आँखें ख़ीरा न होंगी (यानी मक़ाम-ए-बीनाई पर पहुँच जाएँगी) तो काग़ज़ सियाह करना मैं छोड़ दूँगा नफ़ी-ए-मौऊद हैं ये अल्फ़ाज़ असल इसबात चश्म-ए-बीना सफ़ेद काग़ज़ में पढ़ रही हैं कि हर्फ़-ए-मौऊद भी यही है मैं सतह-ए-काग़ज़ से अपने अल्फ़ाज़ उठा रहा हूँ अहल-ए-दिल को बुला रहा हूँ