ख़िरामाँ ख़िरामाँ चली आ रही है निगाहों पे इक हुस्न से छा रही है हर इक गाम पर नूर बिखरा रही है उफ़ुक़ पर वो परचम को लहरा रही है अहिंसा की पहली सुनहरी किरन मिली कीमिया-गर को आख़िर वो बूटी कि जिस से अलाएक की ज़ंजीर टूटी शब-ए-तार में जैसे महताब छूटी तजल्ली के पर्दे से फूटी वो फूटी अहिंसा की पहली सुनहरी किरन नया रूप हस्ती ने पैदा किया है हर इक दिल में इक वलवला भर रहा है मुसीबत का एहसास हिम्मत-फ़ज़ा है कि अर्बाब-ए-बीनिश की अब रहनुमा है अहिंसा की पहली सुनहरी किरन ज़मीन-ओ-ज़माँ हम-नवा हो रहे हैं कि दिल वाले तुख़्म-ए-वफ़ा बो रहे हैं वही पा रहे हैं जो कुछ खो रहे हैं जगाएगी उन को भी जो सो रहे हैं अहिंसा की पहली सुनहरी किरन