वो ग़नी साअत कि हम शाकी न हों या यूँ कहें ख़ाकी न हों सद-हैफ़ अफ़्लाकी न हों काश उस ग़नी साअत में इक कार-ए-ग़नीमत ऐसा हो मिट्टी बदन की रूह की तहज़ीब से हमवार हो बेदार हो ये नक़्श-पा-ए-रफ़्तगाँ रौशन मिसाल-ए-कहकशाँ सब रूह की तहज़ीब से बेदार मिट्टी की नुमू है अक्स-ए-हू है रूह की तहज़ीब या इक सिलसिला जिस में अदम को है सबात (अहल-ए-ज़मीं इक नारा 'दीवाने की बात') और इस अदम से ता-सबात इक बार ऐसा हो कि ना-मौऊद हो यानी ख़ुदा मौजूद हो ख़ाकी फ़क़त ख़ाकी हो अफ़्लाकी न हो और कोई भी शाकी न हो