अजीब लोग थे सूरज की रौशनी के तले ख़ुद अपने-आप को पहचान भी रहे थे और लबों पे दा'वा-ए-इंकार-ए-आफ़्ताब भी था वो जानते थे कि सूरज की रौशनी के सिवा कोई चराग़ मयस्सर नहीं है ऐसा जो तलाश-ए-असल-ए-हक़ीक़त के ज़ीने चढ़ते हुए बे-इम्तियाज़ी में इस आफ़्ताब जैसा हो अजीब लोग थे सूरज के नूर-ख़ाने में किराए-दार भी थे और सर-निगूँ नहीं थे किसी शरार-ए-मुनाफ़िक़ ने उन के सीनों में ज़बाँ-दराज़ी की उस आग को हवा दी थी जिसे क़बीला-ए-ग़फ़लत के ख़ुश्क लोगों ने अना के ख़ब्त पे अफ़्लाक से निकाले हुए किसी दरिन्दा-ए-बे-शक्ल की तसल्ली पर बराए-नश्शा-ए-हैवानियत उठा लिया था मगर ये क्या कि फिर आज इस हमारी बस्ती में अजीब लोग हैं सूरज की रौशनी के तले ख़ुद अपने-आप को पहचान भी रहे हैं और लबों पे दावा-ए-इंकार-ए-आफ़्ताब भी है अजीब लोग हैं सूरज के नूर-ख़ाने में किराए-दार भी हैं और सर-निगूँ नहीं हैं