सियाह ज़ुल्फ़ कि बरसात की हो जैसे घटा मिज़ाज-ए-सुब्ह-ए-दरख़्शाँ तिरी जबीं की ज़िया हसीन गालों पे बिखरा हुआ वो रंग-ए-हया नमी वो होंटों की जिस में नबात-ओ-असल घुला न क्यूँ भला मैं तुझे बिंत-ए-माहताब कहूँ जो आँख नर्गिस-ए-शहला की आबरू ले ले पलक न जिस पे कभी अश्क-ए-मुज़्तरिब खेले छुए जो चाँद को तो हाथ हों तिरे मैले हर एक अंग हसीं किस का ज़िक्र हो पहले तुझे मैं जान-ए-जहाँ रश्क-ए-आफ़्ताब कहूँ वो जज़्र-ओ-मद तिरे सीने का और वो जज़्बात हैं मेरे वास्ते वहशत-ख़रोश ये लम्हात तिरी ज़बान की जुम्बिश में सैंकड़ों नग़्मात वो दिल-पसंद ख़साइल वो दिल-नशीं आदात न क्यूँ भला मैं तुझे हासिल-ए-शबाब कहूँ यही कहूँ कि मिली तुझ को हुस्न की मेराज ख़ुशा नसीब जो कहलाए दिल-बर-ए-‘सरताज’ तिरी जबीं का अरक़ रश्क-ए-नीलम-ओ-पुखराज तिरे जमाल ने गुलशन से ले लिया है ख़िराज तिरे वजूद को मैं वज्ह-ए-इंक़लाब कहूँ