वो पेड़ अब कट गया है जिस के तले जवानी के गर्म लम्हों को ठंडे साए मिले जो इक मोड़ का निशाँ था जहाँ से हम इक नई जिहत को चले थे अब वो निशान भी मिट गया वहाँ कोलतार की इक सड़क है जो गर्मियों में पिघली हुई सी रहती है आदमी भी पिघल रहा है वहाँ पर अब मोटरों का दरिया सा बह रहा है और उन के पीछे धुएँ के पर्दे पड़े हैं कोई न उन को पहचान पाए इक शोर हॉर्नों का बपा है कोई न सुन सके चहचहे परिंदों के अबतरी है मगर मैं इक चाप सुन रहा हूँ वो चाप जैसे कोई बहुत दूर जा चुका है