अकड़ शाह बेहद परेशान था कि अब जा रहा माह-ए-शाबान था बिल-आख़िर हुआ ख़त्म शाबान भी और आया महीनों का सुल्तान भी लगा करने फ़ौरन वो तय्यारियाँ वो ले आया खजला भी और फेनियाँ अकड़ शाह ने जम जम के कीं सेहरियाँ तलाफ़ी को फिर कर लीं इफ़्तारियाँ ये रोज़े लगे उस को भारी बड़े मशाग़िल सभी तर्क करने पड़े कहा सब से मुझ को बड़े काम हैं इबादत रियाज़त के अय्याम हैं बिल-आख़िर रखे उस ने रोज़े सभी दिखा चाँद फिर आ गई ईद भी तो आम और चश्मों से वाक़िफ़ थे जो दिया फ़ितरा सब ने अकड़ शाह को खिली उस के दिल में ख़ुशी की कली वो समझा उसे उस की ईदी मिली नमाज़ उस ने फिर ईद की की अदा सुनी भाँजों की फिर उस ने सदा अकड़ मामूँ ईदी हमारी कहाँ अकड़ शाह को था न इस का गुमाँ किसी को नहीं दी थी ईदी कभी मगर बच्चे चढ़ दौड़े अब के सभी मिले उस को फ़ितरे में जो चार सौ हर इक को दिए चार-ओ-नाचार सौ 'उसामा' से क़िस्से अकड़ शाह के न जाओगे सुन कर बिना वाह के