सुब्ह से शाम तक सिलसिला ज़ीस्त का किस क़दर है कठिन किस क़दर बे-अमाँ लम्हा लम्हा सिसकती हूई ज़िंदगी हर क़दम पर बिलक्ती हूई ज़िंदगी ख़्वाहिशों की असीरी पे नौहा-कुनाँ हर घड़ी जिस्म-ओ-जाँ रूह घायल ख़राशों के दिल पर निशाँ रोज़-ए-अव्वल से जारी-ओ-सारी यहाँ वहशतों का समाँ कोई पल भी अज़िय्यत से ख़ाली नहीं कौन सी आँख है जो सवाली नहीं कोई वारिस नहीं कोई वाली नहीं गुलशन-ए-ख़्वाब का कोई माली नहीं ख़त्म होता नहीं शोर-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ है अज़ल से अबद तक यही दास्ताँ अल-अमाँ अल-अमाँ!!