इक हयूला मिरे एहसास में पोशीदा है गाहे-गाहे जो उभर आता है शैताँ बन कर मुझ में आ जाती है खूँ-ख़्वार दरिंदों की सिफ़त वार करता हूँ मैं हर फ़र्द पे हैवाँ बन कर ख़ैरियत ये है कि तफ़्हीम की क़ुव्वत के तुफ़ैल ऐसी हालत से मैं होता हूँ बहुत कम दो-चार वर्ना इस क़िस्म के लम्हे जो ब-कसरत आते ये भी मुमकिन था कि होता मैं ख़ुद अपना ही शिकार