ख़याल-ओ-फ़िक्र-ए-ख़ूबाँ से नहीं अब मुझ को दिलचस्पी कि उन से ज़ेहन-ओ-दिल के सारे नाते तोड़ आया हूँ जमाल-ए-ज़ाहिरी की मंज़िलों का ज़िक्र ही क्या है मनाज़िल हुस्न-ए-बातिन की भी पीछे छोड़ आया हूँ किसी बद-सूरती से अब नहीं नफ़रत निगाहों को कोई भी ऐब अब कुल्फ़त नहीं एहसास को देता महासिन और मआइब दोनों बे-मा'नी से लगते हैं असर उन से मैं अब अच्छा बुरा कुछ भी नहीं लेता