मैं ने बचपन में सुनी थी अंधे कुएँ की कहानी जब कभी मुद्दतों में कोई क़ाफ़िला भटक कर बयाबान जंगलों में जा निकलता और पानी की तलाश में यहाँ वहाँ भटकते हुए उसे मिलता एक बहुत गहरा अंधा कुआँ और कोई मुसाफ़िर फ़ितरी तजस्सुस से मजबूर हो कर उस अंधे कुएँ में उतर जाता तब उसे वहाँ मिलती एक शहज़ादी मुद्दतों से क़ैद जिसे कोई देव सोते में उड़ा कर ले आया था और छुपा दिया था इस अंधे कुएँ में ज़िंदगी भर के लिए ज़िंदगी के चंद लवाज़िमात समेत ताकि वो ज़िंदा रहे किसी न किसी सूरत अंधे कुएँ तो आज भी हैं मगर वो अब जंगलों में नहीं होते तक़दीर की गर्दिश मुझे भी ऐसे ही वीरान सन्नाटों में ले आई है लेकिन अब क़ाफ़िले नहीं भटकते और मैं भी कोई शहज़ादी नहीं हूँ