चलने दो यूँही क़ाफ़िला-ए-ग़म को ज़रा देर तुम उस की रवानी में रुकावट तो न डालो थम जाओ मिरे ज़ेहन के बे-कार सवालो सौ बार हुई वक़्त के हाथों से हमें मात गिनता रहे अब कौन ज़माने की फ़ुतूहात लेकिन तुम्हें इक राज़ बताते हैं सुनो तुम दुनिया हमें अब मश्क़-ए-सितम लाख बनाए हम उज़्र-ओ-वज़ाहत से हैं आगे निकल आए