तिरी नर्म लहरों पे रक्खे दिए अपने बाक़ी के हमराह गुम हो चुके हैं दुआओं, तमन्नाओं, ख़्वाबों का मौसम अज़िय्यत के कीचड़ में लुथड़ा पड़ा है ख़तों के लिफ़ाफ़े हुरूफ़ ओ मअनी के रंगों से ख़ाली पड़े हैं किनारों से डाली गई दरख़्त की सुर्ख़-रू साज़िशी पत्तियाँ रास्तों के निशान खो चुकी हैं मगर... अगले दिन के हसीं ख़्वाब... अरीज़े की डाली अभी तक कहीं काँपती है