कितनी गर्मी है अयाज़न-बिल्लाह ज़ेर-जामों के तले जिस्म के हर गोशे में चिपचिपाता है पसीने का नमक गर्म पूरब की उमस्ती हुई मर्तूब हवा अपने नमनाक लपकते हूँ हाथों से जिसे पुर-शिकन भीगे हुए सिमटे हुए आँचल में जज़्ब कर सकती नहीं और भिगो देती है और हमसाए के मतबख़ की खुली खिड़की से इक भुलसते हुए बैगन की चराँद आती है बासी होती हुई मछली की बिसांद आती है कितनी गर्मी है अयाज़न-बिल्लाह बादल उमडे हुए हर सम्त से काले बादल साइक़ा शोर गरज तेज़ हवा लीजिए लीजिए पानी टपका लीजिए टूट के पानी बरसा लीजिए ठंडी हवा चलने लगी हिज्र की रात को सहलाती हुई और तन्हाई को आग़ोश में बहलाती हुई