फ़लसफ़ी तुझ को समझते हैं नुमूद-ए-बे-बूद उलमा कहते हैं सरमाया-ए-इशरत तुझ को अह्ल-ए-तारीख़ बताते हैं कि अक़्वाम-ए-ग़यूर मानते आए हैं इक हिस्न-ए-हमीयत तुझ को बेच कर जान ख़रीदार तिरे होते हैं बे-बहा जानते हैं अहल-ए-शुजाअ'त तुझ को कोई कहता है इलाज-ए-मरज़-ए-तन्हाई कोई कहता है दलील-ए-रह-ए-इफ़्फ़त तुझ को हूर-ए-जन्नत है किसी के लिए लेकिन कोई चाह-ए-बाबिल की समझता है हक़ीक़त तुझ को तेरे जौर-ओ-सितम-ओ-नाज़-ओ-तलव्वुन के क़तील काँप कर कहते हैं नैरंगी-ए-क़िस्मत तुझ को कोई कहता है तुझे साया-ए-बेद-ए-लर्ज़ां कोई कहता है मगर सर्व-ए-नज़ाकत तुझ को हुस्न-ए-सीरत पे नज़र जिन की गई कहते हैं कभी इस्मत की कभी शर्म की मूरत तुझ को वस्ल और हिज्र के आलम का कभी कर के ख़याल जान कहता है कोई जान की ज़हमत तुझ को ऐ दो-रंगी-ए-ज़माना की मुजस्सम तस्वीर उरफ़ा कहते हैं आईना-ए-इबरत तुझ को देखता हूँ तिरी सूरत को ब-चश्म-ए-हैरत कुछ बता तू ही कि मैं क्या कहूँ औरत तुझ को