महरम-ए-राज़ दिल-नवाज़ है तू नग़्मा-ए-ज़िंदगी का साज़ है तू कहाँ फूलों में ऐसी रानाई जैसी क़ुदरत से तू ने है पाई तेरे दम से है ये जहाँ गुलज़ार तू ने बख़्शी है इस चमन को बहार तू है इक फूल ख़ुशनुमा शादाब मेहर-ओ-मह का है तू ज़मीं पे जवाब तू ने दी इस चमन को रानाई तू ने फूलों को बख़्शी ज़ेबाई क़ाबिल-ए-क़द्र है तिरी हस्ती लोग क्यों तुझ पे करते हैं सख़्ती तू जहाँ में वफ़ा की देवी है शर्म-ओ-ख़ल्क़-ओ-हया की देवी है सख़्तियाँ किस क़दर उठाती है हर्फ़-ए-शिकवा न लब पे लाती है रौनक़-ए-बज़्म-ए-काएनात है तू और सर-चश्मा-ए-हयात है तू तू न होती तो ये जहान-ए-ख़राब होता दोज़ख़ का इस ज़मीं पे जवाब इतनी मर्दों को दे ख़ुदा तौफ़ीक़ क़द्र तेरी करें बना के रफ़ीक़