अफ़्लाक के तारों में जलती बुझती हुई कुछ आवाज़ें हैं कोहसार के फूलों में बिखरी बहकी हुई कुछ आवाज़ें हैं है मौसम-ए-गुल की आमद से अश्काल-ए-चमन में तब्दीली या मुर्ग़-ए-सहर की गुलशन में बदली हुई कुछ आवाज़ें हैं ज़रदार की हर आवाज़ में है बिफरी हुई सूरत का नक़्शा मज़दूर नहीफ़-ओ-बेचारे सहमी हुई कुछ आवाज़ें हैं आवाज़ जिसे हम कहते हैं तहरीक है ये कुछ शक्लों की हम जिन को समझते हैं शक्लें ठहरी हुई कुछ आवाज़ें हैं वो गीत हमें जो याद रहे देखी हुई सूरत है कोई मानूस हैं जो शक्लें हम से जानी हुई कुछ आवाज़ें हैं इल्हाद के कुछ मय-ख़्वारों ने पी ली है ज़ियादा ही शायद अतराफ़-ए-दयार-ए-मग़रिब से बहकी हुई कुछ आवाज़ें हैं ऐ 'ज़ेब' खवय्या ही अपने हैं उन की लुग़त से ना-वाक़िफ़ हर बहर से मौजों की सूरत उठती हुई कुछ आवाज़ें